Monday, September 19, 2011

पर ख़ुशी न मिली मुझे ख़ुशी न मिली

ख़ुशी की चाह में कितनी राहें चुनी
उम्मीद की हद तक मै चला भी उन पर
हर राह मै ढूँढा हर ओर पुकारा
पर ख़ुशी न मिली मुझे ख़ुशी न मिली

सोचा के लोग इतना खुश कैसे रह लेते हैं
इतने गमो को कैसे हँस कर सह लेते हैं
सोचते सोचते मेरी उम्र बीत गयी
पर ख़ुशी न मिली मुझे ख़ुशी न मिली

कितनो को सुनाये अपने शिकवे गिले
कुछ ने दिलासा दी तो कुछ ने नकारा भी
गमो की दास्तान कहते कहते मेरी जुबां ही थक गयी
पर ख़ुशी न मिली मुझे ख़ुशी न मिली

दुनिया में मुझे कई लोग मिले
किसी ने देखा नफरत से तो कई  गले मिले
हर शख्स में ढूँढा मैंने अपनी ख़ुशी का कारण
पर ख़ुशी न मिली मुझे ख़ुशी न मिली


हरिओम 
१९ /०९ /११

हमारे प्यारे मास्टर जी


बड़े दिनों से मिलने की इच्छा थी उनसे पर इस दौड़ भाग की जिंदगी में समय ही नहीं निकाल पाया. पर आज जैसी बैचैनी दिल में कभी न हुई. दिल ने कहा-"मास्टर जी बुला रहे हैं" .बस फिर मैं कहाँ रुकने वाला था.
ज्यादा दूर नहीं था हमारा गाँव पर इस नौकरी के चक्कर में अपना गाँव मानो बेगाना सा हो गया. पर आज नहीं रहा गया मुझसे. मानो अपने आप ही पैर गाँव जाने वाली बस की ओर चल दिए. मैं बस में बैठा इक अजीब से ख़ुशी और बैचैनी के मिश्रण के साथ , और आखिर बस चल दी. और मै भी अपने गाँव की और मास्टर जी की यादों मे खो गया.
एक सच्चे शिक्षक थे हमारे मास्टर जी. मुझे तो याद नहीं कि उन्होंने कभी किसी बच्चे को मारा हो. उनका सिद्धांत ही अलग था. वो मारने के बजाय प्यार से समझाने मे विश्वास रखते थे. पर बच्चे तो बच्चे ठहरे . वो कहा मानने वाले थे. "ये चोटी ...ये चोटी" हाँ यही कहकर तो चिड़ाते थे बच्चे उन्हें. पर वो इसे भी बचपना मानकर मुस्कुरा कर निकल जाते थे.  "बदतमीज़ नहीं नादान है ये " ऐसा ही कुछ तो कहते थे जब लोग उनसे बच्चो की शिकायत करते थे. बच्चो को भी हमेशा यही नसीहत देते रहते थे -
" पढ़ लो बच्चो पढ़ लो....तुम्हे बड़ा आदमी बनना है...अपने माँ बाप का नाम रोशन करना है ...पढ़ लो “
ऐसा तो कोई दिन नहीं जब सारे बच्चे समय पर स्कूल आ गए हो .( हाँ अगर १५ अगस्त और २६ जनवरी को छोड़ दिया जाए तो, वो भी शायद इसलिए क्यों कि उस दिन बूंदी के लड्डू बटते थे.)
पर मास्टर जी भी मास्टर जी ठहरे. वो बच्चो से भी ज्यादा जिद्दी . घर जा जाकर बुला लाते थे सब को. क्या क्या तो सुनना पड़ता था उन्हें भी.
"आज मेहमान आये है मास्टर जी , मुन्नी स्कूल चली जायेगी तो घर का काम कौन करेगा"
"रोज़ तो जाता है स्कूल हमारा छोटू, एक दिन नहीं गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा."
"अरे मास्टर जी अगर रोज़ श्याम स्कूल जाएगा तो जानवरों को चराने कौन ले के जायेगा "

"मास्टर जी हमने तो गुडिया को इस कारण स्कूल मे डाला था कि थोड़ी बहुत स्कालरशिप  मिल जायगी तो घर का खर्चा चल जायगा, वरना हमें क्या पड़ी है उसे पढ़ाने की. आखिर चौकी बेलन ही तो चलाना है उसे जिंदगी भर."
और भी न जाने क्या क्या. पर जैसे तैसे मास्टर जी भी उन्हें मनाकर ले ही आते. सच मै या मेरे साथी जो भी बड़े बड़े पदों पर हैं तो बस मास्टर जी की बदौलत. कुछ ऐसे भी है जो आज मजदूरी ही कर रहे हैं. लोग कहते है ये सब तो तकदीर का खेल है. पर शायद ये मास्टर जी की सलाह न मानने का नतीजा है.
मास्टर जी के ख्यालों मे इतना खो गया की पता ही न चला कब गाँव आ गया.अब तो मन की बैचैनी और बढ़ गयी थी. मै बस से उतरते ही सीधे स्कूल की तरफ भगा. आज इतवार था पर मास्टर जी के लिए क्या इतवार और क्या सोमवार. उनका तो मानो स्कूल ही घर था. सो मुझे पक्का यकीं था की वो स्कूल में ही मिलेंगे.
"पर आज स्कूल में इतनी भीड़ क्यों है. कोई प्रोग्राम तो नहीं" मैंने कदमो की गति और तेज़ कर दी. पर वहाँ जो देखा उससे तो मेरी साँसों की गति भी तेज़ हो गयी. सामने मास्टर जी हमेशा के लिए शांत हो चुके थे. पर उनके चेहरा आज भी मानो यही कह रहा था
" पढ़ लो बच्चो पढ़ लो....तुम्हे बड़ा आदमी बनना है...अपने माँ बाप का नाम रोशन करना है ...पढ़ लो “

ये इश्क


उसकी  याद  ने   रुलाया  है  मुझे  कुछ  इस  कदर
कि  आंसुओ  से  भरा  जाम  छोड़ा  भी  नहीं  जाता 
और  पिया  भी  नहीं  जाता

उसकी  याद  में  तडपा  हूँ   मै  दिन  रात
कि  मिलने  की आश  मे  मरा  भी  नहीं  जाता
और  उसके  बिन  अब  जिया  भी  नहीं  जाता

इस  प्यार  का  दर्द  इतना  ज्यादा  क्यों  है
कि  बताया  भी  नहीं  जाता
और  छुपाया  भी  नहीं  जाता

इस  इश्क  की  राह  बड़ी  अजीब  लगती  है  मुझको 
कि  इक  बार  चल  दिए  तो  रुका  नहीं  जाता
और  रुक  गए  तो  फिर  चला  नहीं  जाता

इक  बार  जो  दिल  टूटा  तो  दर्द  कुछ  इतना  होता  है
कि  इस  दिल  को  टूटा  हुआ  छोड़ा  नहीं  जाता
और  फिर  टूटने  के  लिए  दिल  को  जोड़ा  नहीं  जाता

उन  हसीन  यादों  का  काफिला  है  ये  इश्क
कि  ये  हमेशा  अपने साथ  रहता  नहीं
और  हमसे  इसको  छोड़ा  नहीं  जाता ..


हरिओम
१९/०९/२०११

ऐ मेरी जुबां मुझे आज कुछ कहने दे

बस मुझे आज न चुप रहने दे
ऐ मेरी जुबां मुझे आज कुछ कहने दे
मैंने आज तक कुछ नहीं माँगा
तुने जो कहा वही मैंने माना
तेरी हर बात को मैंने पत्थर की लकीर समझा
तेरे हर इक शब्द को खुदा की मर्ज़ी जाना
कुछ गलत भी हुआ और हुआ कुछ सही भी
कुछ ने तारीफ की तो कुछ्ने दी गाली भी
मै सहता रहा सब मौन रहकर
अपने अरमां अपने ही मै दबाकर
चाहकर भी न चाहा जो चाहता था मै
बस इस कारण के तूने न चाहा वो
पर आज मुझे नज़र आया है कोई
पहली दफा दिल में समाया है कोई
बस इक बार मुझे प्यार की कश्ती में बहने दे
ऐ मेरी जुबां मुझे आज कुछ कहने दे


हरिओम
१९/०९/२०११

Thursday, August 4, 2011

आखिर क्या कुसूर था मेरा ?


कि इस  जिस्म  से  मेरी  जागीदारी  अब  ख़त्म  होती  है
मेरे  बच्चों  तुम्हारी  बूढी  सवारी  अब ख़त्म  होती  है

      कुछ  ऐसा  ही  तो  कहकर  चल  बसे  थे  उन     बच्चों  के  पिता .कहते हैं  कैंसर  हो  गया  था  उन्हें , और  उस  जमाने  में  तो  इसका  कोई  इलाज़  ही    था . उम्र  भी  ज्यादा    थी  , यही  कोई   ३५ -३६  साल  रही  होगी . बच्चे  तो  जानते  समझते  भी    थे  कुछ  पर  बच्चों  की  माँ  की  पीड़ा  का  बखान  कर  पाना  मेरे  बस  में  नहीं . क्या  गुजरी  होगी  उन  पर  वही  जानती  हैं . थोड़ी  बहुत  ज़मीन  थी , उससे   ही  खर्चा -पानी  चलता  था .
              "अम्मा बड़े भैया ने  मुझे मारा. ऊंऊंऊंऊंऊंऊं "
              "नहीं अम्मा मैंने नहीं मारा झूट बोल रहा है छोटा, गिल्ली डंडा में मुझसे जीत न सका तो रोने लगा...."
 पढ़ाई  में  ज्यादा  मन  नही  लगता  था  दोनों  भाइयों  का.
              "अम्मा आज स्कूल नहीं जाऊँगा "
              "ठीक है मत जाओ पर घर पर पढाई करना"
             "अगर बड़े भैया नहीं जायंगे तो मै भी नहीं जाऊँगा"
             "ठीक है बेटा दोनों मत जाओ ..खुश!!!"
बड़े लाड प्यार से पाला था उनकी माँ ने उन्हें. यूँ ही  कभी  लड़ते झगड़ते  तो  कभी  हसते खेलते न  जाने  कब  बच्चे  बड़े  हो  गए ,पता  ही    चला . सच  समय  भी  कितनी  तेज़ी  से  गुजरता  है .बड़े भाई ने खेती किसानी संभाल ली , धीरे धीरे छोटे भाई ने भी उसका हाथ बताना सुरु कर दिया. अब बड़ा भाई तो सच में बड़ा हो चूका था....सो उसके व्याह की तैयारिया होने लगी.और इक प्यारी सी दुल्हन घर में आ गयी.
             "हाय कितनी सुन्दर है तुम्हारी बड़ी बहु...सचमुच परी लगती है इक्दुम "
            "चल हट नज़र न लगा देना मेरी बहु को...."
बड़ा प्रेम था सास बहु में.सुन्दर  होने  के  साथ  साथ  सभी कामो में   संपन्न  थी  बड़ी  बहु . देखते  ही  देखते  सारा  घर  संभाल  लिया . अब  अम्मा  को  काम   करने  की  ज़रुरत    पड़ती  थी , सारा  काम  बहु  अकेले  ही  कर  लेती  थी  , लाख  मन  करने  पर  भी
                "बेटी रहने दे सार (गौशाला) मैं साफ़ करे देती हु,,,सुबह से परेसान हो रही है तू तो "
               " अम्मा बाजू वाली काकी पूछ रही थी आपका...जाओ आप उनसे मिलकर आओ...ये काम तो मैं कर लुंगी"
सच  बहुत  काम  करती  थी  बड़ी  बहु , पर  कभी  किसी  से  सिकायत    की . अपने  सरीर  के  दर्द  को  भी  बहार    आने  देती  वो . बड़ी  हंसी  ख़ुशी  से चल रहा था सब कुछ .  छोटा   भाई  भी  अब शादी योग्य हो चुका था. सो उसकी भी शादी जल्द ही कर दी गयी.छोटी  बहु  थोड़े  बड़े  परिवार  से  थी  और  बड़ी  बहु  से  भी  ज्यादा  सुन्दर . धीरे  धीरे  वो  भी  घर  वालों  से  घुल  मिल  गयी . वो  भी घर  के  काम  में  बड़ी  बहु  का  हाथ  बटाती . माँ  के  हाथ  पैर  दबाती .

    "अरे बेटी मेरे हाथ पैर तो ठीक हैं ..अब इस बुढ़ापे में थोडा सा दर्द तो चलता है जा तू जाके सोजा "
    " माँ जी ये तो मेरा धर्म है और वैसे भी  थोडा हाथ पैर दबाने से में दुबली नहीं हो जाउंगी"
पर  शायद  भगवान्  को  ये  सब  मंजूर    था .धीरे  धीरे  छोटी  बहु  का   स्वभाव  बदलने  लगा . शायद  अपने  मायके  का  घमंड  हो  या  अपनी  सुन्दरता  का . पर  अब   वो  धीरे  धीरे  अपना  रौब  जमाने  लगी  थी .
                "छोटी ..तुम खाना बनाने की तैयारी करो मै जब तक बर्तन साफ़ करके आती हू"
               "इक दिन अकेले खाना बना लोगी तो हाथ नहीं छन जायेंगे"
और  अम्मा  की  सेवा  तो  मानो  उसके  लिए  पाप  हो  चला  था .
                " कभी हाथ पैर में दर्द कभी कमर में दर्द....आपका तो ये रोज़ का नाटक हो गया है..सब काम न करने के बहाने हैं."
                "अम्मा की थोड़ी सेवा कर लोगी तो पुण्य मिलेगा " छोटे भाई ने कहा .पर वो कहा किसी की सुनती ..मुह पर जबाब मिलता था..
                "इतनी हमदर्दी है तो खुद ही क्यों नहीं करते 'सेवा' "

बड़े  भैया  तो  बड़ी  बहु  को  ही  समझाते  रहते  थे
                      -“छोटी  बहन  है  तुम्हारी , २ -४  बोल  बोल  भी  दिए  तो  क्या  हुआ ”.
बड़ी  बहु  भी  खुद  को  समझा  ही  लेती . आखिर  बात  को  बढ़ने  से  लड़ाई  ही  होगी , हल  तो  कोई  निकलने  से  रहा . पर  अब  भी  छोटी  बहु  को  शांति    मिली . उसे  लगने  लगा  था  की  घर  वाले  बड़ी  बहु  का ही ज्यादा पक्ष लेते हैं . अब  उसे  ये  बात  कैसे  पच  सकती  थी . उसने  बड़ी  बहु  को  नीचा  दिखाने  की  ठान ली . इक  दिन  मौका  पाकर  अपना  सोने  का  हार  बड़ी  बहु  के  बिस्तर  के  नीचे  छुपा  दिया . और  हार  के  गम  हो  जाने  का  नाटक  करने  लगी .

                        ":हाय राम पूरे २५००० का हार था..जाने किसकी चोर उचक्के के हाथ लगा होगा"
फिर  क्या था - सब  के  सब  हार  ढूँढने  में  लग  गए . बड़े  भैया   खेत  पर  गए  हुए  थे . आखिर  हार  मिल  ही  गया . पर  अब  सभी  की  नज़रें  बड़ी  बहु  के  ऊपर  थी . कितनी  ही  गालियाँ  सुनाई  होगी  छोटी  बहु  ने  उसे .

                "चुड़ैल है ये ...ऐसे लोगो को घर में पाल रखा है तो किसी चोर उचक्के की क्या ज़ुरूरत" छोटे  भाई  ने  भी  कितनी  ही  खरी  खोटी  सुनाई   उसे  और  अब  तो  अम्मा  की  नज़रों  में  भी  वो  इक  चोर  बन  चुकी  थी . बड़े  भैया  को  जब  ये  बात  पता  चली  तो  कितना  ही  मारा   होगा  उन्होंने  बड़ी  बहु  को . सच  रो  रो  कर  बुरा  हाल  था  उसका .
                       “में  निर्दोष  हु , में  निर्दोष  हु ”. पर  कोई  उसकी  सुनने  को  तैयार    था . अछूत  जैसा  व्यवहार  होने  लगा  था  उसके  साथ . तीसरे  ही  दिन  कुटुंब में  एक  साडी  थी . सभी  लोग  शादी  में  चले  गए . बड़ी  बहु    गयी ,

              “इसे ले जाकर क्या अपनी बदनामी करवानी है ....सड़ने दो इसे यही...वो सुबह की २ रोटी रखी हैं खा लेना हम थोडा देर से आयेंगे"

मन ही मन कुंठा से भर चुकी थी वो. अपना दर्द सुनाये भी तो किसे. नौकरानी जैसा काम करो और अछूतों जैसा व्यवहार सहो...खुशियों ने तो मानो मुह ही मोड़ लिया था उससे. वो तो बस जिंदगी की और दौड़ दौड़ कर जिए जा रही थी..बस इसी आशा में की कभी तो किसी को उसके निर्दोष होने का अहसास होगा.

देर रात जब  सभी  वापस  लोटे  तो  घर  का  दरवाजा  अन्दर से बंद  था . कितनी  ही  आवाज़  लगाईं  पर  दरवाजा    खुला .
              "सो रही होंगी महारानी सुनो जी आप खिड़की से जाके दरवाजा खोल दो"
पर  ये  दवाजा  खुलना  तो  मानो  किसी  बादल  के  फटने  जैसा  था …अन्दर  का  नज़ारा  देखकर  सभी  की  आँखें  फटी  की  फटी  रह  गयी .चारो  और  घोर  सन्नाटा  पसरा  हुआ  था  और  उसी  सन्नाटे  के  बीच  पंखे  से झूल रही थी  बड़ी  बहु  की  लास . उसका  चेहरा  किसी  ज्वालामुखी  की  तरह  लाल  हो  चूका   था , आँखों  से  तो  मानो  खून  टपक  रहा  हो  , उसकी  जुबान   बहार  निकल  आई  थी ,मानो  सभी  से  यही  कह  रही  हो -

“आखिर  क्या  कुसूर  था  मेरा ???"
"आखिर  क्या  कुसूर  था  मेरा ???.”               

Tuesday, July 19, 2011

वो दिन - सुनहरा या काला

इतनी  सिद्दत  से  था  इंतज़ार  उनके  आने  का  हमे
कई  रोज़  से  उनकी  राह  में  पलकें  बिछाए  बैठे  हैं

मेरी  जिंदगी  तो  कट  ही  जाती  इन  तन्हाइयों  की  पनाह  में
उसके  आने  की  खबर  ने  तन्हाइयों  को  भी  बेअवाफाई  सिखा  दी

     सच  कितना  अरसा  हो  गया  उसे  देखे  हुए . कैसी  होगी  वो  ?  क्या  पहले  जैसी  चंचल  शरारती . नहीं -नहीं  …लोग  तो  कहते  हैं  व्याह  के  बाद  तो  चंचलता  और  शरारत  चली  जाती  है , या  यूँ  कहे  हमे  इन्हें  छोड़ना  ही  पड़ता  है . ये  तो  बच्चों  की आदतें हैं.तो  फिर  कैसी  होगी  वो ? क्या  इक्दुम  कठोर  स्वभाव  की ?
 हर  किसी  पर गुस्सा दिखाती  हुई ! नहीं  मेरा  मन  नहीं  मानता , वो  इतनी  कठोर  कैसे  हो  सकती  है !!! पर  अब  मोटी  तो  ज़रूर  हो  गयी  होगी ….इक्दुम  अम्मा  जैसी . कैसी  दिखती  होगी  वो   साडी  में ? वो  मांग  में  सिन्दूर , आँखों  में  सुरमा , हाथों  में  टहनियों  तक  चूड़ियाँ . अपने  दिमाग  में  इक  छाया -चित्र  सा  बना  लिया  था  अपने  गाँव  की  नदी  के  किनारे  बैठे -बैठे .
            यही  तो  बैठकर  घंटो  बातें  करते  थे  रोज़  शाम  को . वो  अपनी  सहेलियों  के  साथ  घूमने  के  बहाने  आ  जाती  थी . न  जाने  कितने  झूट  बोले  होंगे  उसने  मुझसे  मिलने  की  खातिर . पर  हाँ  किसी  को  शक  भी  न  होने  दिया  हमारे  प्यार  का . सिर्फ  उसकी  दो -चार  सहेलियों  को  छोड़  दिया  जाए  तो . वो  भी  शायद  इसलिए  कि  औरतों  के  पेट  में  कोई  बात  नहीं  पचती  और  फिर  वही  सहेलियां  तो  हमारे  मिलने  का  कारण  बनती  थी .
             पहले  तो  हम   कभी  कभी  मिला  करते  थे . पर  फिर  इस  दिल  कि  बेचैनी  को  समझाना  मुस्किल  हो  गया . अब  रोज़  का   मिलना  था  हमारा . वो  रोज़  साज़ -संवरकर  मुझसे  मिलने  आ  जाती . इक्दुम  पारी  सी  लगती  थी  सजने  पर .
              इक  तो  उसके  नयन  वैसे  ही  कारे  थे
             ऊपर  से  गजब  ये  किया  के  सुरमा  लगा  लिया
पर  धीरे -धीरे  लोगों  को  शक  होने  लगा . आखिर  इक  छोटे  से  गाँव  में  कोई  बात  कब  तक  छुपी  रह  सकती  है . और  न  जाने  कब -कैसे  बात   उसके  घर  तक  पहुँच  गई . उसके  माता  पिता  ने  उसका  घर  से  बहार  निकलना  बंद  कर  दिया . मैंने  अपने  घर  वालों  को  मनाने  कि  खूब  कौशिश  कि  और  आखिरकार   वो  मान  भी  गए . मेरे  पिताजी  गए  भी  उनके  घर  रिश्ते  कि  बात  लेकर . पर  उसके   घर  वाले  कहा  मानने  वाले  थे ….आकिर  हम  दोनों  अलग -अलग  जाती के  थे  और  जातिवाद  खूब  फल -फूल  रहा  था  उस  समय . आनन्  फानन  में  उसकी  सगाई  कर  दी  गयी …और उसी  पखवाड़े  के  अन्दर  उसकी  साडी  भी  कर  दी . उस  दिन  आखिरी  बार  देखा  था   उसे -घूंघट  के  अन्दर  सिसकते  हुए ,डोली  में  बैठकर  जाते  हुए .
वो  दिन  है  और  आज   का  दिन  है ,खुदा  ही  जानता  है  कितना  तदपा  हूँ  मै   उसके  लिए …
                आज  फिर  इन  हवाओं  मै  रुसवाई  है ,
                फिर  वही  उदासी  और  तन्हाई  है
                  पल -पल  इस  अहसास  से  सहम  उठता  है  दिल
                  शायद  आज  फिर  उसने  मुझे  आवाज़  लगाईं  है
पर  आज  इस  दिल  कि  सारी  तन्हाइयां  दूर  होने  वाली  हैं . आज  मै  जी  भर  के  रोऊंगा  उसके  आने  कि  ख़ुशी  मै .
                तेरे  आने  की  ख़ुशी  मै  मेरा  दम  निकल  न  जाए .
बस  को  आने  मै  तो  अभी  पूरे  ३  घंटे  बाकी  थे , पर  इस  नादाँ  दिल  का  क्या  करता ….अभी  से  जा  बैठा  वही  पास  में चाय  की  गुमठी  पर  जहां   बस  रूकती  थी . एक  ही  तो  बस  आती  है  हमारे  गाँव  में . वो  भी  इक्दुम  खाच्चाद ….बाबा  आदम  के  जमाने  की . आज  तक  खूब  कोसा  है  मैंने  इस  बस  को ,पर  आज  इसकी  आरती  उतारने  का  मन  कर  रहा  था . इक  इक  पल  घंटों  जैसा  लग  रहा  था . कितनी  ही  चाय  पी डाली  बैठे  बैठे . चाय  वाले  चच्चा  भी  मुझे  देखकर  हैरान  से  थे . अब  उनको  क्या  समझाउं. चुपचाप  बैठा  रहा . अचानक  बच्चों  के  चिल्लाने  की  आवाज़  आई . मै  समझ  गया  की  बस  आ   गयी . यूं   तो  रोज़  ही  बच्चे  बस  के  आने  पर  चिल्लाते  हुए  उसके  पीछे  भागते  हैं ,धुल  मिटटी  की  परवाह  किये  बगैर , कितनी  ही  बार  डांटा  1होगा  मैने इन्हें ,पर  आज  इन्हें  गले  लगाने  को  दिल  कर रहा  था .

आखिरकार  बस  आ  ही  गयी . एक  एक  करके  सभी  उतर  गए . और  आखिर  में  उतरी  वो  जिसके  लिए  मै पलकें  बिछाए  बैठा  था . पर  उसे  देखकर  तो  आँखें  फटी  सी  रह  गयी . इक  पल  तो  विस्वास  ही  न  हुआ  के  ये  वही  है . मेरी  कल्पनाओं  का  महल  ढह सा  गया  इक्दुम . वो  लाल  जोड़े  में  नही  थी ,सफ़ेद  साडी  लिपटी  थी उसके  बदन  पर . न  हाँथ  में  चूड़ियाँ ,न  मांग  में  सिन्दूर . उसका  कमल  जैसा  चेहरा  आज  मुरझाया  हुआ  था . आँखें  काली  पड़ी  हुई  थी . होंठ  सूख  चुके  थे . कहाँ  गयी  वो  चंचलता ,वो  तिरछी  नज़रों  से  देखने  का  अंदाज़ , वो  मुस्कुराना  और  वो  क़यामत  की  अदा . उसके  माँ  और  बाबूजी  बीमारी  के  कारन  नहीं  आ  सके  थे  उसे  लेने . मै  आगे  बढ़ा. उसने  मुझे  देखते  ही  नज़रें  झुका  ली . बस  इक  धीमी  सी  आवाज़  आई -"कैसे  हो ? " मेरी  जुबां  तो  मानो  जंग  खा  गयी  थी . कुछ   न  बोला  मै,  और  उसका  सामान  उठाकर   आगे  बढ़   दिया . मेरी  उत्सुकता  को  शायद    भांप  लिया  था  उसने . “सड़क  दुर्घटना  में  हुआ  ये  सब ” – वो  सिसकते  हुए  बोली . उसे  उसके  घर  पर  छोड़कर  मै वापस  नदी  किनारे  जा  बैठा .
                  फिर   उन्ही  तन्हाइयों  की गोद में  , उन्ही  सिसकती   हवाओं  में
                  फिर  से  वही  आ  बैठा  हु , सांप  सी  डसती  फिजाओं  में .
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