इतनी सिद्दत से था इंतज़ार उनके आने का हमे
कई रोज़ से उनकी राह में पलकें बिछाए बैठे हैं
मेरी जिंदगी तो कट ही जाती इन तन्हाइयों की पनाह में
उसके आने की खबर ने तन्हाइयों को भी बेअवाफाई सिखा दी
सच कितना अरसा हो गया उसे देखे हुए . कैसी होगी वो ? क्या पहले जैसी चंचल शरारती . नहीं -नहीं …लोग तो कहते हैं व्याह के बाद तो चंचलता और शरारत चली जाती है , या यूँ कहे हमे इन्हें छोड़ना ही पड़ता है . ये तो बच्चों की आदतें हैं.तो फिर कैसी होगी वो ? क्या इक्दुम कठोर स्वभाव की ?
हर किसी पर गुस्सा दिखाती हुई ! नहीं मेरा मन नहीं मानता , वो इतनी कठोर कैसे हो सकती है !!! पर अब मोटी तो ज़रूर हो गयी होगी ….इक्दुम अम्मा जैसी . कैसी दिखती होगी वो साडी में ? वो मांग में सिन्दूर , आँखों में सुरमा , हाथों में टहनियों तक चूड़ियाँ . अपने दिमाग में इक छाया -चित्र सा बना लिया था अपने गाँव की नदी के किनारे बैठे -बैठे .
यही तो बैठकर घंटो बातें करते थे रोज़ शाम को . वो अपनी सहेलियों के साथ घूमने के बहाने आ जाती थी . न जाने कितने झूट बोले होंगे उसने मुझसे मिलने की खातिर . पर हाँ किसी को शक भी न होने दिया हमारे प्यार का . सिर्फ उसकी दो -चार सहेलियों को छोड़ दिया जाए तो . वो भी शायद इसलिए कि औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती और फिर वही सहेलियां तो हमारे मिलने का कारण बनती थी .
पहले तो हम कभी कभी मिला करते थे . पर फिर इस दिल कि बेचैनी को समझाना मुस्किल हो गया . अब रोज़ का मिलना था हमारा . वो रोज़ साज़ -संवरकर मुझसे मिलने आ जाती . इक्दुम पारी सी लगती थी सजने पर .
इक तो उसके नयन वैसे ही कारे थे
ऊपर से गजब ये किया के सुरमा लगा लिया
पर धीरे -धीरे लोगों को शक होने लगा . आखिर इक छोटे से गाँव में कोई बात कब तक छुपी रह सकती है . और न जाने कब -कैसे बात उसके घर तक पहुँच गई . उसके माता पिता ने उसका घर से बहार निकलना बंद कर दिया . मैंने अपने घर वालों को मनाने कि खूब कौशिश कि और आखिरकार वो मान भी गए . मेरे पिताजी गए भी उनके घर रिश्ते कि बात लेकर . पर उसके घर वाले कहा मानने वाले थे ….आकिर हम दोनों अलग -अलग जाती के थे और जातिवाद खूब फल -फूल रहा था उस समय . आनन् फानन में उसकी सगाई कर दी गयी …और उसी पखवाड़े के अन्दर उसकी साडी भी कर दी . उस दिन आखिरी बार देखा था उसे -घूंघट के अन्दर सिसकते हुए ,डोली में बैठकर जाते हुए .
वो दिन है और आज का दिन है ,खुदा ही जानता है कितना तदपा हूँ मै उसके लिए …
आज फिर इन हवाओं मै रुसवाई है ,
फिर वही उदासी और तन्हाई है
पल -पल इस अहसास से सहम उठता है दिल
शायद आज फिर उसने मुझे आवाज़ लगाईं है
पर आज इस दिल कि सारी तन्हाइयां दूर होने वाली हैं . आज मै जी भर के रोऊंगा उसके आने कि ख़ुशी मै .
तेरे आने की ख़ुशी मै मेरा दम निकल न जाए .
बस को आने मै तो अभी पूरे ३ घंटे बाकी थे , पर इस नादाँ दिल का क्या करता ….अभी से जा बैठा वही पास में चाय की गुमठी पर जहां बस रूकती थी . एक ही तो बस आती है हमारे गाँव में . वो भी इक्दुम खाच्चाद ….बाबा आदम के जमाने की . आज तक खूब कोसा है मैंने इस बस को ,पर आज इसकी आरती उतारने का मन कर रहा था . इक इक पल घंटों जैसा लग रहा था . कितनी ही चाय पी डाली बैठे बैठे . चाय वाले चच्चा भी मुझे देखकर हैरान से थे . अब उनको क्या समझाउं. चुपचाप बैठा रहा . अचानक बच्चों के चिल्लाने की आवाज़ आई . मै समझ गया की बस आ गयी . यूं तो रोज़ ही बच्चे बस के आने पर चिल्लाते हुए उसके पीछे भागते हैं ,धुल मिटटी की परवाह किये बगैर , कितनी ही बार डांटा 1होगा मैने इन्हें ,पर आज इन्हें गले लगाने को दिल कर रहा था .
आखिरकार बस आ ही गयी . एक एक करके सभी उतर गए . और आखिर में उतरी वो जिसके लिए मै पलकें बिछाए बैठा था . पर उसे देखकर तो आँखें फटी सी रह गयी . इक पल तो विस्वास ही न हुआ के ये वही है . मेरी कल्पनाओं का महल ढह सा गया इक्दुम . वो लाल जोड़े में नही थी ,सफ़ेद साडी लिपटी थी उसके बदन पर . न हाँथ में चूड़ियाँ ,न मांग में सिन्दूर . उसका कमल जैसा चेहरा आज मुरझाया हुआ था . आँखें काली पड़ी हुई थी . होंठ सूख चुके थे . कहाँ गयी वो चंचलता ,वो तिरछी नज़रों से देखने का अंदाज़ , वो मुस्कुराना और वो क़यामत की अदा . उसके माँ और बाबूजी बीमारी के कारन नहीं आ सके थे उसे लेने . मै आगे बढ़ा. उसने मुझे देखते ही नज़रें झुका ली . बस इक धीमी सी आवाज़ आई -"कैसे हो ? " मेरी जुबां तो मानो जंग खा गयी थी . कुछ न बोला मै, और उसका सामान उठाकर आगे बढ़ दिया . मेरी उत्सुकता को शायद भांप लिया था उसने . “सड़क दुर्घटना में हुआ ये सब ” – वो सिसकते हुए बोली . उसे उसके घर पर छोड़कर मै वापस नदी किनारे जा बैठा .
फिर उन्ही तन्हाइयों की गोद में , उन्ही सिसकती हवाओं में
फिर से वही आ बैठा हु , सांप सी डसती फिजाओं में .
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