Thursday, August 4, 2011

आखिर क्या कुसूर था मेरा ?


कि इस  जिस्म  से  मेरी  जागीदारी  अब  ख़त्म  होती  है
मेरे  बच्चों  तुम्हारी  बूढी  सवारी  अब ख़त्म  होती  है

      कुछ  ऐसा  ही  तो  कहकर  चल  बसे  थे  उन     बच्चों  के  पिता .कहते हैं  कैंसर  हो  गया  था  उन्हें , और  उस  जमाने  में  तो  इसका  कोई  इलाज़  ही    था . उम्र  भी  ज्यादा    थी  , यही  कोई   ३५ -३६  साल  रही  होगी . बच्चे  तो  जानते  समझते  भी    थे  कुछ  पर  बच्चों  की  माँ  की  पीड़ा  का  बखान  कर  पाना  मेरे  बस  में  नहीं . क्या  गुजरी  होगी  उन  पर  वही  जानती  हैं . थोड़ी  बहुत  ज़मीन  थी , उससे   ही  खर्चा -पानी  चलता  था .
              "अम्मा बड़े भैया ने  मुझे मारा. ऊंऊंऊंऊंऊंऊं "
              "नहीं अम्मा मैंने नहीं मारा झूट बोल रहा है छोटा, गिल्ली डंडा में मुझसे जीत न सका तो रोने लगा...."
 पढ़ाई  में  ज्यादा  मन  नही  लगता  था  दोनों  भाइयों  का.
              "अम्मा आज स्कूल नहीं जाऊँगा "
              "ठीक है मत जाओ पर घर पर पढाई करना"
             "अगर बड़े भैया नहीं जायंगे तो मै भी नहीं जाऊँगा"
             "ठीक है बेटा दोनों मत जाओ ..खुश!!!"
बड़े लाड प्यार से पाला था उनकी माँ ने उन्हें. यूँ ही  कभी  लड़ते झगड़ते  तो  कभी  हसते खेलते न  जाने  कब  बच्चे  बड़े  हो  गए ,पता  ही    चला . सच  समय  भी  कितनी  तेज़ी  से  गुजरता  है .बड़े भाई ने खेती किसानी संभाल ली , धीरे धीरे छोटे भाई ने भी उसका हाथ बताना सुरु कर दिया. अब बड़ा भाई तो सच में बड़ा हो चूका था....सो उसके व्याह की तैयारिया होने लगी.और इक प्यारी सी दुल्हन घर में आ गयी.
             "हाय कितनी सुन्दर है तुम्हारी बड़ी बहु...सचमुच परी लगती है इक्दुम "
            "चल हट नज़र न लगा देना मेरी बहु को...."
बड़ा प्रेम था सास बहु में.सुन्दर  होने  के  साथ  साथ  सभी कामो में   संपन्न  थी  बड़ी  बहु . देखते  ही  देखते  सारा  घर  संभाल  लिया . अब  अम्मा  को  काम   करने  की  ज़रुरत    पड़ती  थी , सारा  काम  बहु  अकेले  ही  कर  लेती  थी  , लाख  मन  करने  पर  भी
                "बेटी रहने दे सार (गौशाला) मैं साफ़ करे देती हु,,,सुबह से परेसान हो रही है तू तो "
               " अम्मा बाजू वाली काकी पूछ रही थी आपका...जाओ आप उनसे मिलकर आओ...ये काम तो मैं कर लुंगी"
सच  बहुत  काम  करती  थी  बड़ी  बहु , पर  कभी  किसी  से  सिकायत    की . अपने  सरीर  के  दर्द  को  भी  बहार    आने  देती  वो . बड़ी  हंसी  ख़ुशी  से चल रहा था सब कुछ .  छोटा   भाई  भी  अब शादी योग्य हो चुका था. सो उसकी भी शादी जल्द ही कर दी गयी.छोटी  बहु  थोड़े  बड़े  परिवार  से  थी  और  बड़ी  बहु  से  भी  ज्यादा  सुन्दर . धीरे  धीरे  वो  भी  घर  वालों  से  घुल  मिल  गयी . वो  भी घर  के  काम  में  बड़ी  बहु  का  हाथ  बटाती . माँ  के  हाथ  पैर  दबाती .

    "अरे बेटी मेरे हाथ पैर तो ठीक हैं ..अब इस बुढ़ापे में थोडा सा दर्द तो चलता है जा तू जाके सोजा "
    " माँ जी ये तो मेरा धर्म है और वैसे भी  थोडा हाथ पैर दबाने से में दुबली नहीं हो जाउंगी"
पर  शायद  भगवान्  को  ये  सब  मंजूर    था .धीरे  धीरे  छोटी  बहु  का   स्वभाव  बदलने  लगा . शायद  अपने  मायके  का  घमंड  हो  या  अपनी  सुन्दरता  का . पर  अब   वो  धीरे  धीरे  अपना  रौब  जमाने  लगी  थी .
                "छोटी ..तुम खाना बनाने की तैयारी करो मै जब तक बर्तन साफ़ करके आती हू"
               "इक दिन अकेले खाना बना लोगी तो हाथ नहीं छन जायेंगे"
और  अम्मा  की  सेवा  तो  मानो  उसके  लिए  पाप  हो  चला  था .
                " कभी हाथ पैर में दर्द कभी कमर में दर्द....आपका तो ये रोज़ का नाटक हो गया है..सब काम न करने के बहाने हैं."
                "अम्मा की थोड़ी सेवा कर लोगी तो पुण्य मिलेगा " छोटे भाई ने कहा .पर वो कहा किसी की सुनती ..मुह पर जबाब मिलता था..
                "इतनी हमदर्दी है तो खुद ही क्यों नहीं करते 'सेवा' "

बड़े  भैया  तो  बड़ी  बहु  को  ही  समझाते  रहते  थे
                      -“छोटी  बहन  है  तुम्हारी , २ -४  बोल  बोल  भी  दिए  तो  क्या  हुआ ”.
बड़ी  बहु  भी  खुद  को  समझा  ही  लेती . आखिर  बात  को  बढ़ने  से  लड़ाई  ही  होगी , हल  तो  कोई  निकलने  से  रहा . पर  अब  भी  छोटी  बहु  को  शांति    मिली . उसे  लगने  लगा  था  की  घर  वाले  बड़ी  बहु  का ही ज्यादा पक्ष लेते हैं . अब  उसे  ये  बात  कैसे  पच  सकती  थी . उसने  बड़ी  बहु  को  नीचा  दिखाने  की  ठान ली . इक  दिन  मौका  पाकर  अपना  सोने  का  हार  बड़ी  बहु  के  बिस्तर  के  नीचे  छुपा  दिया . और  हार  के  गम  हो  जाने  का  नाटक  करने  लगी .

                        ":हाय राम पूरे २५००० का हार था..जाने किसकी चोर उचक्के के हाथ लगा होगा"
फिर  क्या था - सब  के  सब  हार  ढूँढने  में  लग  गए . बड़े  भैया   खेत  पर  गए  हुए  थे . आखिर  हार  मिल  ही  गया . पर  अब  सभी  की  नज़रें  बड़ी  बहु  के  ऊपर  थी . कितनी  ही  गालियाँ  सुनाई  होगी  छोटी  बहु  ने  उसे .

                "चुड़ैल है ये ...ऐसे लोगो को घर में पाल रखा है तो किसी चोर उचक्के की क्या ज़ुरूरत" छोटे  भाई  ने  भी  कितनी  ही  खरी  खोटी  सुनाई   उसे  और  अब  तो  अम्मा  की  नज़रों  में  भी  वो  इक  चोर  बन  चुकी  थी . बड़े  भैया  को  जब  ये  बात  पता  चली  तो  कितना  ही  मारा   होगा  उन्होंने  बड़ी  बहु  को . सच  रो  रो  कर  बुरा  हाल  था  उसका .
                       “में  निर्दोष  हु , में  निर्दोष  हु ”. पर  कोई  उसकी  सुनने  को  तैयार    था . अछूत  जैसा  व्यवहार  होने  लगा  था  उसके  साथ . तीसरे  ही  दिन  कुटुंब में  एक  साडी  थी . सभी  लोग  शादी  में  चले  गए . बड़ी  बहु    गयी ,

              “इसे ले जाकर क्या अपनी बदनामी करवानी है ....सड़ने दो इसे यही...वो सुबह की २ रोटी रखी हैं खा लेना हम थोडा देर से आयेंगे"

मन ही मन कुंठा से भर चुकी थी वो. अपना दर्द सुनाये भी तो किसे. नौकरानी जैसा काम करो और अछूतों जैसा व्यवहार सहो...खुशियों ने तो मानो मुह ही मोड़ लिया था उससे. वो तो बस जिंदगी की और दौड़ दौड़ कर जिए जा रही थी..बस इसी आशा में की कभी तो किसी को उसके निर्दोष होने का अहसास होगा.

देर रात जब  सभी  वापस  लोटे  तो  घर  का  दरवाजा  अन्दर से बंद  था . कितनी  ही  आवाज़  लगाईं  पर  दरवाजा    खुला .
              "सो रही होंगी महारानी सुनो जी आप खिड़की से जाके दरवाजा खोल दो"
पर  ये  दवाजा  खुलना  तो  मानो  किसी  बादल  के  फटने  जैसा  था …अन्दर  का  नज़ारा  देखकर  सभी  की  आँखें  फटी  की  फटी  रह  गयी .चारो  और  घोर  सन्नाटा  पसरा  हुआ  था  और  उसी  सन्नाटे  के  बीच  पंखे  से झूल रही थी  बड़ी  बहु  की  लास . उसका  चेहरा  किसी  ज्वालामुखी  की  तरह  लाल  हो  चूका   था , आँखों  से  तो  मानो  खून  टपक  रहा  हो  , उसकी  जुबान   बहार  निकल  आई  थी ,मानो  सभी  से  यही  कह  रही  हो -

“आखिर  क्या  कुसूर  था  मेरा ???"
"आखिर  क्या  कुसूर  था  मेरा ???.”