Monday, September 19, 2011

हमारे प्यारे मास्टर जी


बड़े दिनों से मिलने की इच्छा थी उनसे पर इस दौड़ भाग की जिंदगी में समय ही नहीं निकाल पाया. पर आज जैसी बैचैनी दिल में कभी न हुई. दिल ने कहा-"मास्टर जी बुला रहे हैं" .बस फिर मैं कहाँ रुकने वाला था.
ज्यादा दूर नहीं था हमारा गाँव पर इस नौकरी के चक्कर में अपना गाँव मानो बेगाना सा हो गया. पर आज नहीं रहा गया मुझसे. मानो अपने आप ही पैर गाँव जाने वाली बस की ओर चल दिए. मैं बस में बैठा इक अजीब से ख़ुशी और बैचैनी के मिश्रण के साथ , और आखिर बस चल दी. और मै भी अपने गाँव की और मास्टर जी की यादों मे खो गया.
एक सच्चे शिक्षक थे हमारे मास्टर जी. मुझे तो याद नहीं कि उन्होंने कभी किसी बच्चे को मारा हो. उनका सिद्धांत ही अलग था. वो मारने के बजाय प्यार से समझाने मे विश्वास रखते थे. पर बच्चे तो बच्चे ठहरे . वो कहा मानने वाले थे. "ये चोटी ...ये चोटी" हाँ यही कहकर तो चिड़ाते थे बच्चे उन्हें. पर वो इसे भी बचपना मानकर मुस्कुरा कर निकल जाते थे.  "बदतमीज़ नहीं नादान है ये " ऐसा ही कुछ तो कहते थे जब लोग उनसे बच्चो की शिकायत करते थे. बच्चो को भी हमेशा यही नसीहत देते रहते थे -
" पढ़ लो बच्चो पढ़ लो....तुम्हे बड़ा आदमी बनना है...अपने माँ बाप का नाम रोशन करना है ...पढ़ लो “
ऐसा तो कोई दिन नहीं जब सारे बच्चे समय पर स्कूल आ गए हो .( हाँ अगर १५ अगस्त और २६ जनवरी को छोड़ दिया जाए तो, वो भी शायद इसलिए क्यों कि उस दिन बूंदी के लड्डू बटते थे.)
पर मास्टर जी भी मास्टर जी ठहरे. वो बच्चो से भी ज्यादा जिद्दी . घर जा जाकर बुला लाते थे सब को. क्या क्या तो सुनना पड़ता था उन्हें भी.
"आज मेहमान आये है मास्टर जी , मुन्नी स्कूल चली जायेगी तो घर का काम कौन करेगा"
"रोज़ तो जाता है स्कूल हमारा छोटू, एक दिन नहीं गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा."
"अरे मास्टर जी अगर रोज़ श्याम स्कूल जाएगा तो जानवरों को चराने कौन ले के जायेगा "

"मास्टर जी हमने तो गुडिया को इस कारण स्कूल मे डाला था कि थोड़ी बहुत स्कालरशिप  मिल जायगी तो घर का खर्चा चल जायगा, वरना हमें क्या पड़ी है उसे पढ़ाने की. आखिर चौकी बेलन ही तो चलाना है उसे जिंदगी भर."
और भी न जाने क्या क्या. पर जैसे तैसे मास्टर जी भी उन्हें मनाकर ले ही आते. सच मै या मेरे साथी जो भी बड़े बड़े पदों पर हैं तो बस मास्टर जी की बदौलत. कुछ ऐसे भी है जो आज मजदूरी ही कर रहे हैं. लोग कहते है ये सब तो तकदीर का खेल है. पर शायद ये मास्टर जी की सलाह न मानने का नतीजा है.
मास्टर जी के ख्यालों मे इतना खो गया की पता ही न चला कब गाँव आ गया.अब तो मन की बैचैनी और बढ़ गयी थी. मै बस से उतरते ही सीधे स्कूल की तरफ भगा. आज इतवार था पर मास्टर जी के लिए क्या इतवार और क्या सोमवार. उनका तो मानो स्कूल ही घर था. सो मुझे पक्का यकीं था की वो स्कूल में ही मिलेंगे.
"पर आज स्कूल में इतनी भीड़ क्यों है. कोई प्रोग्राम तो नहीं" मैंने कदमो की गति और तेज़ कर दी. पर वहाँ जो देखा उससे तो मेरी साँसों की गति भी तेज़ हो गयी. सामने मास्टर जी हमेशा के लिए शांत हो चुके थे. पर उनके चेहरा आज भी मानो यही कह रहा था
" पढ़ लो बच्चो पढ़ लो....तुम्हे बड़ा आदमी बनना है...अपने माँ बाप का नाम रोशन करना है ...पढ़ लो “

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